दिवाली की बख्शीश




 नवंबर का महिना, शिशिर ऋतु की सुहानी सुबह | सूर्य देव धीरे-धीरे नभ में अपना पंख पसार रहे थे , और उनकी हलकी लालिमा जब रंग बदलती हुयी धीरे से पीलेपन से प्रेम बढ़ाने लगी तभी मेरी आँख खुली | हर छुट्टी के दिन की तरह एक अलसाई सी सुबह | आम दिनों की तरह आज अदरक कूटने की आवाज पड़ोस से नही आ रही थी | शायद इसीलिए आज मैं रोज की तरह साढ़े पाँच बजे जगने के बजाय अपने आप सुबह छः बजे जगा | बिस्तर में ही पड़े हुए कुछ देर छत को निहारता रहा और शायद सहलाती हुयी सर्दी का प्यार पाने के लिए फिर से कम्बल खींचने ही वाला था की एक प्यारे शुभचिंतक ( मच्छर ) ने विचार बदलने के लिए आवश्यक साहस दिलाने का प्रयास शुरू कर दिया | और अंततः एक खालिश भारतीय शुभचिंतक की तरह उन्हें अपने सार्थक प्रयास पर आत्ममुग्ध होने का अवसर मिला और मैं आँखे मिचकाते हुए , उबासी लेते हुए उठ बैठा |

कन्धों के ऊपर हाथों को खींचते हुए , जोरदार जम्हाई ली ; सर्वत्र विराजित ईश्वर को मानसिक नमन करते हुए अपना स्वयं का कमलमुख दर्शन हेतु वाशबेसिन पहुंचा | मुँह धोते ही आदतन अर्धांगिनी को आवाज लगायी , " पानी पियोगी क्या?"
 ( एक आम भारतीय पति की तरह सुबह पत्नी को जगाने और चाय पिलाने की प्रेमिल परंपरा को मैंने गुनगुना  पानी पिलाने तक सीमित कर रखा है | ) 
और आशा के अनुरूप जवाब आया, एक अन्य वाक्यांश के साथ ,
"आज सिलेंडर भी लाना है |" 
 बस सारी ईद मुहर्रम हो गयी |
सोचा था आज दिन भर कुछ विशेष नहीं है करने को, तो क्यों ना कुछ लिखा या पढ़ा जाय | खुद को ही खुद की नजर लग गयी | दिवाली की मिठास कच्ची रहने का डर ना रहे इसलिए ये तो करना ही पड़ेगा , क्योंकि आखिरकार मैं ही पिछले एक महीने से आजकल करके टाल रहा था |


जैसे तैसे माहौल बनाया , और पहुँच गये एजेंसी ठीक दस बजे | वहां और दिनों के मुकाबले थोड़ी चहल-पहल ज्यादा थी | बाकी के आये हुए महानुभावों को भी दिवाली फीकी होने का डर सता रहा होगा | करीब दस मिनट बाद मैंने एक गर्वीली मुस्कान के साथ अपना क्रेडिट कार्ड कैशिएर की और बढाने का अवसर पाया, लेकिन उसने कार्ड इस तरह लिया और देखा जैसे निर्वाण प्राप्त साधू महात्मा | 
बिल लेने के बाद जैसे ही मैं डिलीवरी बॉय के पास पहुँचा तो उसकी मृदु मुस्कान कुछ संदेह के कांटे चुभा रही थी, देखा की आज उसका व्यवहार अन्य दिनों के बनिस्बत काफी मधुर और सहयोगी है | मुझे भी देखकर वो बड़े प्रेम से मुस्कराया और मेरे हाथों से लगभग छीनते हुये रशीद  लेकर रजिस्टर में लिखने लगा | बड़ी ही तत्परता से खाली सिलेंडर को एक किनारे लगाकर उसने भरा सिलेंडर पलक झपकते ही हाजिर कर दिया | मेरी विस्मय  की पराकाष्ठा को भी पार करते हुए वह मुझसे बोला ,
" सर , लीक भी चेक कर दिया है | " 
 "थैंक यू" और इस मिठास को पचाने की कोशिश में  मैं जैसे ही बाहर को मुड़ा , 
" सर , दिवाली की बख्शीश !"

सारी कहानी अब शीशे की तरह साफ़ हो गयी | मेरे  निर्विकार से रहने वाले चेहरे पे एक हलकी सी हँसी आकर बिखर गयी | अचानक बचपन की होली -दिवाली और  गाँव सब मेरी आँखों के आगे घूम गये | एक पल में ही मैं फिर से उन लम्हों को पुनः जी गया | बचपन के दिनों में किस तरह होली-दिवाली , दशहरा-मेले का जितना इन्तजार हम बच्चों को हुआ करता था ,उतना किसी और को नहीं | मगर  उससे कहीं ज्यादा इन्तजार उन गरीबों और समाज के सबसे निचले तबके के बाशिंदों को रहा करता था जिसे समाज परजा  कहा करता था | नाई , धोबी , कुम्हार , कहार , हरवाह , जुलाहे और ना जाने कितने ही तरह की प्रजा थी जो हमारे दैनिक जीवन का अभिन्न हिस्सा था |उनके बिना सामान्य जीवन भी कठिन था , तीज त्यौहार की तो बात ही और है| तकनीक के अभाव और समाज में हर वर्ग का अपने पुश्तैनी कार्य में पारंगत होने के कारण सभी परस्पर एक दूसरे पर आश्रित थे| 
कुम्हार के कोसे ,दिए और अन्य मिटटी के बर्तनों से हमें कोई लेना देना नही हुआ करता था| हमारी सारी ख़ुशी तो बस मिटटी के बने घोड़े,हाथी, लट्टू, तराजू , और चरखी घिरनी से ही जुडी होती थी | हफ़्तों पहले से हम कच्चे मिटटी के बर्तनों के बनने से लेकर आंवे में पकने तक की सारी प्रक्रिया का जायजा लेने बिना नागा किये पहुँच जाते थे | हमको मिलने वाले इन मुफ्त के खिलौनों और उपहारों के बदले जो कुछ वो पाते थे या लेकर जाते थे , वो ही थी बख्शीश | इसी तरह हर कोई साल भर की गयी अपनी सेवाओं को बड़े ही शोख तरीके से गिनाता था और बदले में ले जाता था बख्शीश | ऐसा तो शायद ही कभी होता था जब हर कोई बहुत खुश ही होकर जाता हो , लेकिन संतुष्ट होकर सभी जाते थे | जिसके मन का नहीं मिलता था वो अगली बार अपना ध्यान रखने की सिफारिश करके ही टलता था |

उन दिनों के आईने में जब आज  की टिप संस्कृति को याद करता हूँ तो अनायास ही गर्दन ना में ही हिलती है | कहाँ रहा वो अपनापन, वो लगाव , वो सच्ची शुभेच्छाएं | देनेवाले सोचते थे त्यौहार सब के घर मने | त्यौहार के लिए बनी मिठाई प्रजा को देकर ही खायी जाति थी , और लेनेवाले खुशी से स्वीकार करते थे | आज ना वो रिवाज ही रहे न ही वो लोग | टिप के इस दौर में लेने वाला पाकर खुश नहीं क्योंकि उसे और चाहिए,और देने वाला देकर खुश नहीं क्योंकि वो उनकी सेवाओं से संतुष्ट नहीं है | लेकिन दिखावे की दुनिया है बाबूजी, देते भी हैं ठसक से,और लेते भी हैं मुस्कराकर | चाहे कितना भी नकली क्यों न हो |

अब ये न पूछियेगा कि , मैंने दिया कितना और उन्होंने लिया कैसे .....link

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