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Showing posts from November, 2018

मासूम बचपन

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face मासूम बचपन वो धुँधली सी यादें, सतरंगी सपने,वो छोटे से वादे। घर का वो आंगन, और गाँव की गलियां; वो आम के टिकोरे, मटर की वो फलियाँ। धान के खेतों में पौधे लगाना, जौ की फली से घड़ियाँ बनाना। आलू के ठप्पों से रंगीन होली, गुझिया घोड़े हाथी से सजती दीवाली। जाड़ों के दिन और गर्मी की रातें, किरकिट के किस्से और मंदिर में बातें। अमरूद के पेड़ और आम के बगीचे, अपने कंचे छुपाना उस जामुन के नीचे। वो छुपना-छुपाना, पतंगे उड़ाना, चोरी से भैया की साइकिल चलाना। छोटा सा बचपन और लम्बी कहानी, भूतों के किस्से बड़ों की जुबानी। हाथों में पाटी कन्धे पे बस्ता, चवन्नी की चूरन जमाना था सस्ता। वो गुड़ की जलेबी वो सर्कस वो मेले, हर दिल लुभाते बिसाती के ठेले। तालाब किनारे वो मछली पकड़ना, पेड़ों पे चढ़ना ,उल्टा लटकना। वो तिलवा वो ढूंढी और लडुआ की तिकड़ी, बोरी में भर-भर के आती थी खिचड़ी। हँसते-हँसाते ,सपने सजाते, सुहाने से दिन और प्यारी सी रातें। कहाँ छोड़ आया वो मासूम बचपन, वो सोने से दिल और चाँदी सी बातें।।

दिवाली की बख्शीश

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  नवंबर का महिना, शिशिर ऋतु की सुहानी सुबह |  सूर्य देव धीरे-धीरे नभ में अपना पंख पसार रहे थे , और उनकी हलकी लालिमा जब रंग बदलती हुयी धीरे से पीलेपन से प्रेम बढ़ाने लगी तभी मेरी आँख खुली | हर छुट्टी के दिन की तरह एक अलसाई सी सुबह | आम दिनों की तरह आज अदरक कूटने की आवाज पड़ोस से नही आ रही थी | शायद इसीलिए आज मैं रोज की तरह साढ़े पाँच बजे जगने के बजाय अपने आप सुबह छः बजे जगा | बिस्तर में ही पड़े हुए कुछ देर छत को निहारता रहा और शायद सहलाती हुयी सर्दी का प्यार पाने के लिए फिर से कम्बल खींचने ही वाला था की एक प्यारे शुभचिंतक ( मच्छर ) ने विचार बदलने के लिए आवश्यक साहस दिलाने का प्रयास शुरू कर दिया | और अंततः एक खालिश भारतीय शुभचिंतक की तरह उन्हें अपने सार्थक प्रयास पर आत्ममुग्ध होने का अवसर मिला और मैं आँखे मिचकाते हुए , उबासी लेते हुए उठ बैठा | कन्धों के ऊपर हाथों को खींचते हुए , जोरदार जम्हाई ली ; सर्वत्र विराजित ईश्वर को मानसिक नमन करते हुए अपना स्वयं का कमलमुख दर्शन हेतु वाशबेसिन पहुंचा | मुँह धोते ही आदतन अर्धांगिनी को आवाज लगायी , " पानी पियोगी क्या?"   ( एक आम भा

नजरें

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SAD EYES झुकी नजरें तुम्हारी क्यों,                                    मुझे बेचैन करती हैं | गुनाहे  इश्क करती हैं,                                    मगर कहने से डरती हैं ||  हजारों ख़्वाब जिन्दा हैं,                                   तेरी इन सोयी आँखों में | लाख सी ले लबों को तू,                                    छुपा दिल की पनाहों में || मगर;  मेरी बदनामी के किस्से जो,                                    तुम्हारी सखियाँ कहती हैं | बड़े बेमन से सुनती हो,                                       नदी आँखों से बहती है || मोहब्बत ये नहीं तो क्या,                                     जरा खुद ही बता दो तुम | हजारों साल से जिन्दा,                                     इबारत को मिटा दो तुम || न ही कोई कसम दूँगा,                                         न कोई वादा ही लूँगा | तुम्हारी खुशियों की खातिर,                                        जमाने को भी छोडूंगा || फकत एक बार कह दो तुम,                                       मुझी से प्यार करती हो |