नजरें
झुकी नजरें तुम्हारी क्यों,
मुझे बेचैन करती हैं |
गुनाहे इश्क करती हैं,
मगर कहने से डरती हैं ||
हजारों ख़्वाब जिन्दा हैं,
तेरी इन सोयी आँखों में |
लाख सी ले लबों को तू,
छुपा दिल की पनाहों में ||
मगर; मेरी बदनामी के किस्से जो,
तुम्हारी सखियाँ कहती हैं |
बड़े बेमन से सुनती हो,
नदी आँखों से बहती है ||
मोहब्बत ये नहीं तो क्या,
जरा खुद ही बता दो तुम |
हजारों साल से जिन्दा,
इबारत को मिटा दो तुम ||
न ही कोई कसम दूँगा,
न कोई वादा ही लूँगा |
तुम्हारी खुशियों की खातिर,
जमाने को भी छोडूंगा ||
फकत एक बार कह दो तुम,
मुझी से प्यार करती हो |
निगाहें है झुकी तो क्या,
ख्वाब मेरे ही बुनती हो || और पढ़ें
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